सहरी का आख़िरी वक़्त(sahri ka waqt )sahee ahaadees





रोज़ेदार रात के आख़िरी हिस्से में और सुबह सादिक़ से क़ब्ल जो खाते और पीते हैं उसे सहरी कहते हैं। सहरी खाना मुस्तहब और अफ़्ज़ल है। अहादीस़ में सहरी खाने की बड़ी ताकीद की गई है।

हज़रत अनस रज़ीयल्लाहु तआला अन्हु से रिवायत है रसूलुल्लाह ﷺ ने इरशाद फ़रमाया सहरी खाया करो सहरी खाने में बरकत है। (सहीह मुस्लिम जिल्द अव्वल किताबुस् सियाम, बाब सहरी खाने की ताकीद, हदीस नंबर 2347)

सहरी खाने से रोज़ादार को क़ुव्वत हासिल होती है। अगर खाने की हाजत ना हो तब भी चंद खजूर और पानी के एक आध घूँट ही ले लेना चाहिए। सहरी के बग़ैर रोज़ा रहना सुन्नत के ख़िलाफ़ है। यहूदियों के यहां भी रोज़ा रखने का रिवाज है। यहूद बग़ैर सहरी के रोज़ा रखते हैं। यहूदियों की मुख़ालिफ़त में सहरी खाना चाहिए ताकि उन से मुशाबिहत ना हो।

हज़रत अम्र बिन आस रज़ियल्लाहू अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया हमारे रोज़ों और अहले किताब के रोज़ों में सिर्फ़ सहरी खाने का फ़र्क़ है (वह सहरी नहीं खाते और हम खाते हैं) (तिर्मिज़ी शरीफ़ अबवाबुस् सौम, सहरी की फ़ज़ीलत का बाब, हदीस 629 और मुस्लिम जिल्द अव्वल किताबुस् सियाम, बाब सहरी खाने की ताकीद, हदीस 2378)

सहरी के आख़िरी वक़्त से मुताल्लिक़ बअ्ज़ लोगों में बड़ी अहतियात की जाती है। सहरी के आख़िरी वक़्त का मसाजिद से लाउड स्पीकर में ऐलान किया जाता है। बअ्ज़ मक़ामात पर मीनारों पर रौशनी करके सहरी के वक़्त के ख़ात्मे का ऐलान किया जाता है। बअ्ज़ अश्ख़ास सहरी के आख़िरी वक़्त से बहुत पहले ही खाना पीना अहतियातन बंद कर देते हैं। जबकि दौरे नबवी और दौरे सहाबा में घड़ी का वजूद नहीं था कि घन्टे, मिनट और सेकंड में सहरी का आख़िरी वक़्त सहीह सहीह बता दिया जाए। सहरी का आख़िरी वक़्त का ताय्युन क़ुरआने करीम और अहादीसे मुबारका से मिलता है। क़ुरआन और हदीस की रौशनी में सहरी के आख़िरी वक़्त का ताय्युन करना आसान है। और इस पर बिहि आसानी हर इलाक़े के लोग घड़ी के बग़ैर भी सहरी के आख़िरी वक़्त का इहतिमाम कर सक्ते हैं। 

क़ुरआने करीम में अल्लाह तआला का फ़रमान है:
وکلوا وشربوا حتی یتبین لکم الخیط الابیض من الخیط الاسود من الفجر (सूरह बक़रा। आयत नंबर 187) सहरी खाओ और पियो यहां तक कि खुल जाए तुम्हारे लिए सुबह की सफ़ेद धारी (सुबह सादिक़) सियाह धारी (सुबह काज़िब) से

शुरू में इस आयत में मिनल् फ़ज्र का लफ़्ज़ नाज़िल नहीं हुवा था जिस से बअ्ज़ सहाबा किराम को इस आयत का मतलब समझने में दुशवारी हुई और अज़ ख़ुद उन्होंने इसका अपने तौर पर मतलब समझ कर अमल करने लगे जैसा कि ज़ेल की हदीस से मालूम होता है। बअ्द में मिनल् फ़ज्र का इज़ाफ़ा नाज़िल हुवा तो सहाबा किराम पर इस आयत का मतलब 
वाज़ेह हो गया।

सहल बिन सअ्द रज़ीयल्लाहु तआला ने बयान किया कि आयत नाज़िल हुईوکلوا واشربوا حتی یتبین لکم الخیط الابیض من الخیط الاسود खाओ पियो यहां तक कि तुम्हारे लिए सफ़ेद धारी सियाह धारी से खुल जाए। लेकिन मिनल् फ़ज्र (सुबह के) अल्फ़ाज़ नाज़िल नहीं हुए थे। इस पर कुछ लोगों ने यह किया कि जब रोज़े का इरादा होता (फ़र्ज़ या नफ़्ल) तो सियाह व सफ़ेद धागे लेकर पाओं में बांध लेते और जब तक दोनों धागे पूरी तरह दिखाई ना देने लगते खाना पीना बंद ना करते थे, इस पर अल्लाह तआला ने मिनल् फ़ज्र (सुबह के) अल्फ़ाज़ नाज़िल फ़रमाए, फिर लोगों को यह मालूम हुवा कि इससे मुराद रात और दिन के हैं। (बुख़ारी शरीफ़, किताबुस् सौम, हदीस नंबर 1790)

दूसरी हदीस अदी बिन हातिम रज़ियल्लाहू अन्हु से मरवी है। जिसके अल्फ़ाज़ इस तरह हैं जब यह आयत नाज़िल हुई (ताआंकि खुल जाए तुम्हारे लिए सफ़ेद धारी सियाह धारी से तो मैं एक सियाह धागा लिया और एक सफ़ेद और दोनों को तकिये के नीचे रख लिया और रात में देखता रहा। मुझ पर इनके रंग ना खुले जब सुबह हुई तो मैं रसूलुल्लाह ﷺ की ख़िदमत में हाज़िर हुवा और आप से इनका ज़िक्र किया। आप ﷺ ने फ़रमाया इससे तो रात की तारीकी (सुबह काज़िब) और दिन की सफ़ेदी (सुबह सादिक़) मुराद है। (बुख़ारी शरीफ़, किताबुस् सौम, हदीस 1789) दीगर अहादीसे मुबारका से भी सहरी के आख़िरी वक़्त का ताय्युन किया जा सक्ता है।

हज़रत तल्क़ बिन अली रज़ियल्लाहू अन्हु से रिवायत है कि जनाब रिसालत मआब ﷺ ने फ़रमाया कि खाओ पियो तुम्हें (सहरी खाने से) चढ़ने वाली रौशनी (सुबह काज़िब) ना छुड़ा दे। खाओ पियो जब तक कि सुर्ख़ी चौड़ी होकर ना फैले। (तिर्मिज़ी शरीफ़, जिल्द अव्वल, अबवाबुस् सौम, बाब नंबर 17, सुबह सादिक़ का बयान, हदीस नंबर 625)। इमाम तिर्मिज़ी ने फ़रमाया यह हदीस हसन ग़रीब है।
उलमा का इसी पर अमल है कि जब तक लाल रंग की चौड़ी सुबह (सादिक़) ना हो जाए तब तक खाना पीना हराम नहीं है, तमाम उलमा इसी के क़ाइल हैं।

रसूलुल्लाह ﷺ के दौरे मुबारक में मस्जिदे नबवी में दो मुअज़्ज़िन फ़ज्र की अज़ान देते थे। पहले हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहू अन्हु फिर हज़रत अब्दुल्लाह बिन मक्तूम रज़ियल्लाहू अन्हु दोनों की अज़ान में बहुत कम फ़ासिला होता था। और आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया कि दूसरी अज़ान तक खाना पीना जाएज़ है, जैसा कि ज़ेल की हदीस से वाज़ेह है।
हज़रत समुरह बिन जुन्दुब रज़ीयल्लाहु तआला अन्हु फ़रमाते हैं कि नबी करीम ﷺ ने इरशाद फ़रमाया कि तुम्हें हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहू अन्हु की अज़ान सहरी (खाने पीने) से ना रोक दे और ना लम्बी फ़ज्र (यानी सुबह काज़िब जो लम्बी होती है, चौड़ी नहीं होती) मगर हाँ वह फ़ज्र जो उफ़ुक़ में फैली हुई होती है। (तिर्मिज़ी शरीफ़ अबवाबुअस् सौम सुबह सादिक़ का बयान, हदीस नंबर 626) इमाम तिर्मिज़ी ने कहा यह हदीस हसन है।
दूसरी हदीस में है कि रसूलुल्लाह ﷺ ने इरशाद फ़रमाया बिलाल रज़ियल्लाहू अन्हु की अज़ान तुम में से किसी के वास्ते सहरी से मानेअ् ना हो, वह वक़्त से इसलिए अज़ान देता है कि तहज्जुद पढ़ने वाले कुछ आराम कर लें और सोने वाले बेदार हो जाएं (यह फ़रमा कर) हुज़ूर ﷺ ने हाथ सीधा किया और ऊपर उठाया और फ़रमाया (फ़ज्र) इस तरह नहीं होती। फिर उँगलियों को फैला कर एक कलिमा की उंगली दूसरी कलिमा उंगली पर रख कर दोनों हाथ को फैला कर इरशाद फ़रमाया, बल्कि फ़ज्र इस तरह होती है। (यानी सुबह सादिक़ लम्बी धारी का नाम नहीं है बल्कि उस रौशनी का नाम है जो आस्मान के किनारों पर नमूदार होकर फैल जाती है। (सहीह मुस्लिम जिल्द अव्वल, किताबुस् सियाम, बाब इफ़्तार में जल्दी और सहरी में ताख़ीर का हुक्म हदीस 2340)

सहरी खाने में ताख़ीर करना अफ़्ज़ल है। जैसा कि ज़ेल की हदीस से साबित है और ताख़ीर की इंतिहा का भी वाज़ेह इल्म होता है।

हज़रत अनस रज़ियल्लाहू अन्हु रिवायत करते हैं कि हज़रत ज़ैद बिन साबित रज़ियल्लाहू अन्हु ने फ़रमाया कि हमने रसूलुल्लाह ﷺ के हमराह सहरी खाई फिर हम लोग नमाज़ पढ़ने के लिए उठ गए। मैंने पूछा दोनों के दरमियान कितना वक़्त था। (यानी सहरी खाने और नमाज़ पढ़ने के दरमियान कितना वक़्फ़ा था ?) हज़रत ज़ैद बिन साबित रज़ियल्लाहू अन्हु ने फ़रमाया कि पचास आयतों के बराबर। (तिर्मिज़ी शरीफ़, जिल्द अव्वल, अबवाबुस् सौम, सहरी में ताख़ीर करना, हदीस नंबर 624) इससे साबित हुवा कि सहरी खाने और नमाज़ पढ़ने के दरमियान इतना ही वक़्त था जितनी देर में क़ुरआन की पचास आयतों की तिलावत की जा सक्ती है।
इमाम तिर्मिज़ी रहमतुल्लाहि अलैह ने फ़रमाया कि हज़रत ज़ैद बिन साबित रज़ियल्लाहू अन्हु की हदीस हसन व सहीह है। इमाम शाफ़ई, इमाम अहमद और इमाम इस्हाक़ रहिमहुमुल्लाह इसी के क़ाइल हैं कि सहरी में ताख़ीर करना बेहतर व मुस्तहब है। और इस ताख़ीर का आख़िरी वक़्त सुबह सादिक़ तक है। सहल बिन सअ्द रज़ी अल्लाह अन्हु ने बयान किया कि मैं सहरी अपने घर खाता फिर जल्दी करता ताकि नमाज़ नबी करीम ﷺ के साथ मिल जाए। (बुख़ारी शरीफ़, किताबुस् सौम, बाब सहरी में देर करना, हदीस 1792) नबी करीम ﷺ फ़ज्र की नमाज़ हमेशा (रमज़ान या ग़ैर रमज़ान) तुलूए फ़ज्र के बअ्द और अंधेरे में ही पढ़ा करते थे और यही फ़ज्र का अव्वल वक़्त है।

अबू हुरैरह रज़ियल्लाहू अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया जब तुम में से कोई अज़ान सुने (यानी सुबह की) और (खाने का) बरतन उसके हाथ में हो (यानी कुछ खाने पीने का इरादा रखता हो) तो जब तक अपनी हाजत रवाई ना कर ले उस बरतन को ना रखे। (सुनन अबू दावूद, बाब 196, सुबह की अज़ान सुने जबकि बरतन हाथ में हो, हदीस 578।)
यहां मुराद हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहू अन्हु की पहली अज़ान मुराद नहीं बल्कि हज़रत उम्म मक्तूम रज़ियल्लाहू अन्हु की दूसरी अज़ान है। वरना इस सूरत में बरतन हाथ में होने की क़ैद की क्या ज़रूरत थी? यह हुक्म मख़्सूस है कभी सहरी उठने में देर हो जाए और खाते वक़्त अज़ान की आवाज़ सुनाई दे तो दिल में कोई शक व शुबह ना आने देना चाहिए हस्बे ज़रूरत खा पी लेना चाहिए। यह अल्लाह और उसके रसूल ﷺ का बन्दों पर बड़ा लुत्फ़ व करम है।

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